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पुज्य गुरुदेवश्रीनां वचनाम्रुत बोल नं. ७मां आवे छे केः 'आखा सिद्धांतनो सारमां सार तो बहिर्मुखता छोडी अंतर्मुख थवुं ते छे.' |
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(Unknown)
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122 |
वैराग्य संबोधन |
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(Unknown)
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123 |
देव-गुरु-शास्त्र प्रत्ये रुचि लाववा शुं शुं करवुं जोइए? तथा 'मांगलिक' |
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(Unknown)
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124 |
ज्ञानगुण सविकल्प छे अने बाकी बधा गुणो निर्विकल्प छे, तो केवळज्ञान सविकल्प कहेवाय के केम? |
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(Unknown)
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125 |
प्रवचनसारमां आवे छे..शास्त्रनो अभ्यास करवां, छतां घणा जीवोने रुचि वहेली थाय छे |
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(Unknown)
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126 |
गुरुदेवश्रीनां वचनाम्रुत (बोल ने. २५०)मां आवे छे के "कपडां विना दागीना शोभता नथी" |
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127 |
"आत्मा सौथी अत्यंत प्रत्यक्ष छे, एवो परम पुरुषे करेलो निश्र्य पण अत्यंत प्रत्यक्ष छे" |
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(Unknown)
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128 |
पुज्य गुरुदेवश्रीनां वचनाम्रुतमां आवे छे के "रागना विकल्पथी खंडित थतो हतो |
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(Unknown)
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129 |
अंतरना अभ्यास विषे... |
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(Unknown)
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130 |
पुज्य गुरुदेवश्रीनां वचनाम्रुत (बोल नं.५३)मां आवे छे के 'जेने केवळज्ञानीनो विश्र्वास थाय तेने चरेय पडखे समान अवरोध प्रतीति जोइए |
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(Unknown)
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