श्री जिनेन्द्र धर्मवैभव – मानस्तंभ

श्री जिनेन्द्र धर्मवैभव - मानस्तंभ

श्री जिनेन्द्र धर्मवैभव – मानस्तंभ

परमकृपालु पूज्य सद्-गुरूदेवके पुनीत प्रतापसे वि.सं.1991 (ई.स.1935) में हुए परिवर्तनके पश्चात् धार्मिक प्रवृत्तियोंमें उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही थी। सोनगढ़ से ‘सुवर्णपुरी तीर्थधाम’ रचनाका एक नया चरण था, ‘जिनेन्द्रधर्मवैभव मानस्तंभ’। सौराष्ट्रमें कही भी उपलब्ध नहीं ऐसे उन्नत, विशाल मानस्तंभकी रचनाका निर्णय हुआ। परम पूज्य गुरूदेवश्रीकी उम्रका 63वाँ वर्ष था अतः मानस्तंभ 63 फूट ऊँचा बनाया गया।

वी.सं.2008 (ई.स.1952) महावीर-जयंतीके दिन भगवती पूज्य बहिनश्री चंपाबहिनके पवित्र करकमलोंसे शिलान्यासका मंगल मुहूर्त हुआ। कल्याणकारी परम पूज्य गुरूदेवश्रीकी मंगल उपस्थितिमें यह कार्य अति प्रसन्नता एवं जयघोषोंसे संपन्न हुआ। मानों दसों दिशाएँ गूँज उठी। थोड़े ही दिनोंमें ऊपर नीचेके 8 जिनबिंबोका आगमन हुआ। कुंदकुंदाचार्यकी विदेह की यात्रा एवं समवसरणवाले चित्रकी स्थापना भी उसी समय पूज्य बहिनश्रीके मंगल करकमलोंसे हुई।

पूज्य गुरूदेवश्री कहते थे “यह मानस्तंभ याने कोई कीर्तिस्तंभ नहीं है। भगवानके समवसरणके चारों दरवाजेमें मानस्तंभ होते हैं, यह मानस्तंभ उनका प्रतीक है। ये भव्य स्तंभको देखकर मानीका मान गल जाता है, अतः मानस्तंभ कहलाता है।” पूज्य गुरूदेवश्री फऱमाते थे कि इसे धर्मध्वज, धर्मवैभव या धर्मस्तंभ भी कहते हैं। दूरसे मानों भक्तोंको आह्वाहन करता है कि “आओ, आओ हे भक्तजन ! भवक्लांतका विश्राम यह अतुलधाम है”।

मानस्तंभ बनाने हेतु ट्रक भरभरके सामान आता था। भक्तगण आनंदसे झूमते थे। वि.सं. 2009 (ई.स.1953) तभी प्रतिष्ठाका वायु शीतल मधुर बहने लगा। क्या वह भव्य मानस्तंभ ! क्या वह मंगल महोत्सव ! मानो साक्षात् प्रभुके पंचकल्याणक ही न हो ! विधिनायक नेमिनाथ भगवान थे। आहारदानका लाभ पूज्य बहिनश्री-बहनको मिला था परन्तु पूज्य गुरूदेवश्रीकी पावन निश्रामें सभीने लाभ लिया।

पंचकल्याणकके समय़ कहान-नगरकी रचना की गई थी। छोटेसे सोनगढ़ में 5000 अतिथि पधारे थे। भव्य प्रतिष्ठा मंडप एवं विभिन्न नगरियोंकी रचना की गई थी। चारों दिशामें जय-जयकी मंगल ध्वनि सह परम तारणहार पूज्य गुरूदेवश्रीने वीतरागी भगवंतोंकी मंगल स्थापना की। पूज्य गुरूदेवश्री व पूज्य बहिनश्री-बहन प्रतिदिन मंच पर जाकर मानस्तंभके ऊपरके भगवानकी पूजा-भक्ति करते थे। अहा धन्य अवसर !

मंच परसे ऐसा लगता था कि परम पूज्य गुरूदेवश्री एवं पूज्य माताजी सह हम भी भगवानके समवसरणमें ही बैठे न हो। नीचेसे सभी भक्तगण भक्ति करते। उस समय पं. हिम्मतभाई मानस्तंभकी नई स्तुति रचकर लाए थे।

सुवर्णपुरे स्वाध्यायसुमंदिर जिनगृह गुरूजी लाया……..समवसरण, प्रवचनमंडप ‘जिनधर्म वैभव’ लहराया……..