innerbanner

पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामीकी प्रशस्ति


अध्यात्मयुगस्त्रष्टा पूज्य गुरूदेव
श्री कानजीस्वामीकी प्रशस्ति
[विक्रम संवत् 1946-2037 (ई.स.1890-1980)]

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरूवे नमः।।

इस भारतवर्षकी पुण्य भूमिमें अवतार लेकर जिस महापुरूषने प्रवर्तमान चौबीसके चरम तीर्थंकर देवाधिदेव परमपूज्य 1008 श्री महावीरस्वामी द्वारा प्ररूपित तथा तदाम्नायानुवर्ती आचार्यशिरोमणि श्रीमद्-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा समयसार आदि परमागमोंमें सुसंचित शुद्धात्मद्रव्यप्रधान अध्यात्मतत्त्वामृतका स्वयं पान करके विक्रमकी इस बीस-इक्कीसवीं शताब्दींमें आत्मसाधनाके पावन पंथका पुनः समुद्योत किया है, रूढ़िग्रस्त साम्प्रदायिकतामें फँसे हुए जैनजगत पर जिन्होंने जिनागम, सम्यक् प्रबल युक्ति और स्वानुभवसे द्रव्यदृष्टि- प्रधान स्वात्मानुभूतिमूलक वीतराग जैनधर्मको प्रकाशमें लाकर अनुपम, अद्-भुत और अनंत-अनंत उपकार किये हैं, पैतालीस-पैतालीस वर्षके सुदीर्घ काल तक जिनके निवास, दिव्य देशना तथा पुनीत प्रभावनायोगने सोनगढ़ (सौराष्ट्र) को एक अनुपम ‘अध्यात्मतीर्थ’ बना दिया है, ऐसे सौराष्ट्रके आध्यात्मिक युगपुरूष पूज्य गुरूदेव श्री कानजीस्वामीका पवित्र जन्म सौराष्ट्रके (भावनगर जिलेके) उमराला ग्राममें वि.सं. 1946(ई.स.1890) वैशाख शुक्ला दूज, रविवारके शुभ दिन हुआ था। पिता श्री मोतीचंदभाई और माता श्री उजमबा जातिसे दशा-श्रीमाली वणिक तथा धर्मसे स्थानकवासी जैन थे।

शैशवसे ही बालक ‘कानजी’ के मुख पर वैराग्यकी सौम्यता और नेत्रोंमें बुद्धि तथा वीर्यकी असाधारण प्रतिभा झलकती थी। वे स्कूलमें तथा जैन पाठशालामें प्रायः प्रथम श्रेणीमें आते थे। स्कूलके लौकिक ज्ञानसे उनके चित्तको संतोष नहीं होता था; उन्हें अपने भीतर ऐसा लगता रहता था कि ‘जिसकी खोजमें मैं हूँ वह यह नहीं है’। कभी-कभी यह दुःख तीव्रता धारण करता; और एक बार तो, मातासे बिछुड़े हुए बालककी भाँति, वे बालमहात्मा सत् के वियोगमें खूब रोये थे।

युवावस्थामें दुकान पर भी वे वैराग्यप्रेरक और तत्त्वबोधक धार्मिक पुस्तकें पढ़ते थे। उनका मन व्यापारमय या संसारमय नहीं हुआ था। उनके अंतरका झुकाव सदा धर्म और सत्यकी खोजके प्रति ही रहता था। उनका धार्मिक अध्ययन, उदासीन जीवन तथा सरल अंतःकरण देखकर सगे-संबंधी उन्हें ‘भगत’ कहते थे। उन्होंने बाईस वर्षकी कुमारावस्थामें आजीवन ब्रह्मचर्यपालनकी प्रतिज्ञा ले ली थी। वि.सं. 1970(ई.स.1914)में मंगसिर शुक्ला 9, रविवारके दिन उमरालामें गृहस्थजीवनका त्याग करके विशाल उत्सवपूर्वक स्थानकवासी जैन सम्प्रदायका दीक्षाजीवन अंगीकार किया था।

दीक्षा लेकर तुरन्त ही गुरूदेवश्रीने श्वेताम्बर आगमोंका तीव्र अध्ययन प्रारंभ कर दिया। वे सम्प्रदायकी शैलीका चारित्र भी बड़ी सख्तीसे पालते थे। कुछ ही समयमें उनकी आत्मार्थिताकी, ज्ञानपिपासाकी तथा उग्र चारित्रकी सुवास स्थानकवासी संप्रदायमें इतनी अधिक फैल गई कि समाज उन्हें ‘काठियावाडके कोहिनूर’- इस नामसे सम्मानित करता था।

गुरूदेवश्री पहलेसे ही तीव्र पुरूषार्थी थे। ‘चाहे जैसे कठोर चारित्रका पालन किया जाये तथापि केवली भगवानने यदि अनन्त भव देखे होंगे तो उनमेंसे एक भी भव कम नहीं होगा’- ऐसी काललब्धि एवं भवितव्यताकी पुरूषार्थहीनताभरी बातें कोई कर तो वे सहन नहीं कर सकते थे और दृढ़तासे कहते कि ‘जो पुरूषार्थी है उसे अनन्त भव होते ही नहीं, केवली भगवानने भी उसके अनन्त भव देखे ही नहीं, पुरूषार्थीको भवस्थिति आदि कुछ भी बाधक नहीं होता।’ ‘पुरूषार्थ, पुरूषार्थ और पुरूषार्थ’ वह गुरूदेवका जीवनमंत्र था।

दीक्षापर्यायके अरसेमें उन्होंने श्वेताम्बर शास्त्रोंका गहन चिंतन-मननपूर्वक खूब अध्ययन किया। तथापि वे जिसकी खोजमें थे वह उन्हें अभी मिला नहीं था।

वि.सं.1978(ई.स.1922) में विधिके किसी धन्य क्षणमें दिगम्बर जैनाचार्य श्रीमद्-भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री समयसार नामक महान ग्रन्थ पूर्वभवके प्रबल संस्कारी ऐसे इन महापुरूषके करकमलमें आया। उसे पढते ही उनके हर्षका पार न रहा। जिसकी खोजमें वे थे वह उन्हें मिल गया। गुरूदेवश्रीके अन्तर्नेत्रोंने समयसारमें अमृतके सरोवर छलकते देखे; एकके बाद एक गाथा पढते हुए उन्होंने घूँट भर-भरकर वह अमृत पिया। गुरूदेवने ग्रंथाधिराज समयसारमें कहे हुए भावोंका गम्भीर मंथन किया और क्रमशः समयसार द्वारा गुरूदेव पर अपूर्व, अलौकिक, अनुपम उपकार हुआ। गुरूदेवके आत्मानन्दका पार नहीं रहा। उनके अन्तर्जीवनमें परम पवित्र परिवर्तन हुआ। भूली हुई परिणतिने निज घर देखा। उपयोगका प्रवाह सुधासिन्धु ज्ञायकदेवकी ओर मुडा। उनकी ज्ञानकला अपूर्व रीतिसे विकसित होने लगी।

वि.सं. 1991(ई.स.1935) तक स्थानकवासी सम्प्रदायमें रहकर पूज्य गुरूदेवने सौराष्ट्रके अनेक मुख्य शहरोंमें चातुर्मास तथा शेष कालमें सैकडों छोटे-बडे ग्रामोंमें विहार करके लुप्तप्राय अध्यात्मधर्मका खूब उद्योत किया। उनके प्रवचनोंमें ऐसे अलौकिक आध्यात्मिक न्याय आते कि जो अन्यत्र कहीं सुननेको नहीं मिले हों। प्रत्येक प्रवचनमें वे भवान्तकारी कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन पर अत्यन्त-अत्यन्त भार देते थे। वे कहते थे। “शरीरकी खाल उतारकर नमक छिड़कनेवाले पर भी क्रोध नहीं किया – ऐसे व्यवहारचारित्र इस जीवने अनन्त बार पाले हैं, परन्तु सम्यग्दर्शन एक बार भी प्राप्त नहीं किया।….लाखों जीवोंकी हिंसाके पापकी अपेक्षा मिथ्यादर्शनका पाप अनन्तगुना है।…सम्यक्त्व आसान नहीं है, लाखों-करोड़ोंमें किसी विरले जीवको ही वह होता है। सम्यक्त्वी जीव अपने सम्यक्त्वका निर्णय स्वयं ही कर सकता है। सम्यक्त्वी समस्त ब्रह्माण्डके भावोंको पी गया होता है। सम्यक्त्व वह कोई अलग ही वस्तु है। सम्यक्त्व रहित क्रियाएँ एक रहित शून्योंके समान हैं।…जानपना वह ज्ञान नहीं है; सम्यक्त्व सहित जानपना ही ज्ञान है। ग्यारह अंग कण्ठाग्र हों परन्तु सम्यक्त्व न हो तो अज्ञान है।…सम्यक्त्वीको तो मोक्षके अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अंश प्राप्त हुआ होता है। वह अंश मोक्षसुखके अनन्तवें भाग होने पर भी अनन्त है।” इस प्रकार सम्यग्दर्शनका अद्-भुत माहात्म्य अनेक सम्यक् युक्तियोंसे, अनेक प्रमाणोंसे और अनेक सचोट दृष्टान्तों द्वारा वे लोगोंके गले उतारते थे। उनका प्रिय एवं मुख्य विषय सम्यग्दर्शन था।

गुरूदेवको समयसार प्ररूपित यथार्थ वस्तुस्वभाव और स्वानुभूतिप्रधान सच्चा दिगम्बर निर्ग्रंथमार्ग दीर्घ कालसे अन्तरमें सत्य लगता था, और बाह्यमें वेश तथा आचार भिन्न थे, – यह विषम स्थिति उन्हें खटकती थी; इसलिये उन्होंने सोनगढमें योग्य समय पर-वि.सं. 1991(इ.स.1935) के चैत्र शुक्ला 13(महावीर जयन्ती) के दिन – ‘परिवर्तन’ किया, स्थानकवासी सम्प्रदायका त्याग किया; ‘अबसे मैं आत्मसाधक दिगम्बर जैनमार्गानुयायी ब्रह्मचारी हूँ’ ऐसा घोषित किया। ‘परिवर्तन’ के कारण प्रचण्ड विरोध हुआ, तथापि उन निडर और निस्पृह महात्माने उसकी कोई परवाह नहीं की। हजारोंकी मानवमेदनीमें गर्जता वह अध्यात्मकेसरी सत् के लिये जगतसे नितान्त निरपेक्ष होकर सोनगढ़के एकान्त स्थानमें जा बैठा। प्रारम्भमें तो खलबली मची; परन्तु गुरूदेवश्री काठियावाड़के स्थानकवासी जैनोंके हृदयमें बस गये थे, गुरूदेवश्रीके प्रति वे सब मुग्ध हो गये थे, इसलिये ‘गुरूदेवने जो किया होगा वह समझकर ही किया होगा’ ऐसा विचारकर धीरे-धीरे लोगोंका प्रवाह सोनगढ़की ओर बहने लगा। सोनगढ़की ओर बहता हुआ सत्संगार्थी जनोंका प्रवाह दिन-प्रतिदिन वेगपूर्वक बढ़ता ही गया।

समयसार, प्रवचनसार, नियमसारादि शास्त्रों पर प्रवचन देते हुए गुरूदेवके प्रत्येक शब्दमें बड़ी गहनता, सूक्ष्मता और नवीनता निकलती थी। जो अनंत ज्ञान एवं आनन्दमय पूर्ण दशा प्राप्त करके तीर्थंकरदेवने दिव्यध्वनि द्वारा वस्तुस्वरूपका निरूपण किया, उस परम पवित्र दशाका सुधास्यन्दी स्वानुभूतिस्वरूप पवित्र अंश अपने आत्मामें प्रगट करके सद्-गुरूदेवने अपनी विकसित ज्ञानपर्याय द्वारा शास्त्रोंमें विद्यमान गूढ़ रहस्य समझाकर मुमुक्षुओं पर महान-महान उपकार किया।

गुरूदेवकी वाणी सुनकर सैकड़ो शास्त्रोंके अभ्यासी विद्वान भी आश्चर्यचकित हो जाते थे और उल्लसित होकर कहते थेः ‘गुरूदेव ! आपके प्रवचन अपूर्व हैं; उनका श्रवण करते हुए हमें तृप्ति ही नहीं होती। आप कोई भी बात समझाओ उसमेंसे हमें नया नया ही जानने को मिलता है। नव तत्त्वका स्वरूप या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका स्वरूप, स्याद्वादका स्वरूप या सम्यक्त्वका स्वरूप, निश्चय-व्यवहारका स्वरूप या व्रत-तप-नियमका स्वरूप, उपादान-निमित्तका स्वरूप या साध्य-साधनका स्वरूप, द्रव्यानुयोगका स्वरूप या चरणानुयोगका स्वरूप, गुणस्थानका स्वरूप या बाधक-साधकभावका स्वरूप, मुनिदशाका स्वरूप या केवलज्ञानका स्वरूप-जिस जिस विषयका स्पष्टीकरण आपके श्रीमुखसे हम सुनते हैं उसमें हमें अपूर्व भाव दृष्टिगोचर होते हैं। आपके प्रत्येक शब्दमें वीतरागदेवका हृदय प्रगट होता है।’

गुरूदेव बारंबार कहते थेः ‘समयसार सर्वोत्तम शास्त्र है।’ समयसारकी बात करते हुए उन्हें अति उल्लास आ जाता था। समयसारकी प्रत्येक गाथा मोक्ष देनेवाली है ऐसा वे कहते थे। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवके सर्व शास्त्रों पर उन्हें अपार प्रेम था। ‘भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवका हम पर महान उपकार है, हम उनके दासानुदास हैं’ – ऐसा वे अनेकों बार भक्तिभीने अंतरसे कहते थे। भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञवीतराग श्री सीमंधरभगवानके समवसरणमें गये थे और वहाँ आठ दिन रहे थे, उस विषयमें गुरूदेवको रंचमात्र भी शंका नहीं थी। श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके विदेहगमनके संबंधमें वे अत्यंत दृढ़तापूर्वक कई बार भक्तिभीने हृदयसे पुकारकर कहते थे कि – ‘कल्पना मत करना, इन्कार मत करना, यह बात ऐसी ही है; मानो तब भी ऐसी ही है; नहीं मानो तब भी ऐसी ही है; यथातथ है, अक्षरशः सत्य है, प्रमाणसिद्ध है’। श्री सीमंधर प्रभुके प्रति गुरूदेवको अतिशय भक्तिभाव था। कभी-कभी तो सीमन्धरनाथ के विरहमें परम भक्तिवन्त गुरूदेवके नेत्रोंसे अश्रुधारा बह जाती थी।

पूज्य गुरूदेव द्वारा अन्तरसे खोजा हुआ स्वानुभवप्रधान अध्यात्ममार्ग – दिगम्बर जैनधर्म ज्यों-ज्यों प्रसिद्ध होता गया त्यों-त्यों अधिकाधिक जिज्ञासु आकर्षित हुए। गाँव-गाँवमें ‘दिगम्बर जैन मुमुक्षुमंडल’ स्थापित हुए। सम्प्रदायत्यागसे उठा विरोध-झंझावात शांत हो गया। हजारों स्थानकवासी श्वेताम्बर जैन तथा सैकड़ो अजैन भी स्वानुभूतिप्रधान वीतराग दिगम्बर जैनधर्मके श्रद्धालु हो गये। हजारों दिगम्बर जैन रूढ़िगत बहिर्लक्षी प्रथा छोड़कर पूज्य गुरूदेव द्वारा प्रवाहित शुद्धात्मतत्त्वप्रधान अनेकांत-सुसंगत अध्यात्म-प्रवाहमें श्रद्धा-भक्ति सहित सम्मिलित हो गये। पूज्य गुरूदेवका प्रभावना-उदय दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक वृद्धिगत होता गया।

गुरूदेवके मंगल प्रतापसे सोनगढ़ धीरे-धीरे अध्यात्मविद्याका एक अनुपम केन्द्र-तीर्थधाम बन गया। बाहरसे हजारों मुमुक्षु तथा अनेक दिगम्बर जैन, पण्डित, त्यागी, ब्रह्मचारी पूज्य गुरूदेवश्रीके उपदेशका लाभ लेने हेतु आने लगे। तदुपरान्त, सोनगढ़में बहुमुखी धर्मप्रभावनाके विविध साधन यथावसर अस्तित्त्वमें आते गयेः- वि.सं. 1994(ई.स.1938)में श्री जैन स्वाध्यायमंदिर, 1997(ई.स.1941)में श्री सीमन्धरस्वामीका दिगम्बर जिनमंदिर, 1998में(ई.स.1942) श्री समवसरणमंदिर, 2003(ई.स.1947)में श्री कुन्दकुन्दप्रवचनमंडप, 2009(ई.स.1953)में श्री मानस्तंभ, 2030(ई.स.1974)में श्री महावीर-कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परमागमंदिर आदि भव्य धर्माययतन निर्मित हुए। देश – विदेशमें निवास करनेवाले जिज्ञासु पूज्य गुरूदेवश्रीके अध्यात्मतत्त्वोपदेशसे नियमित लाभान्वित हो सकें इस हेतु गुजराती तथा हिन्दी ‘आत्मधर्म’ मासिक पत्रका प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसी बीच कुछ वर्षों तक ‘सद्-गुरूप्रवचनप्रसाद’ नामक दैनिक प्रवचन – पत्र भी प्रकाशित होता था। तदुपरान्त समयसार, प्रवचनसार, आदि अनेक मूल शास्त्र तथा विविध प्रवचनग्रंथ इत्यादि अध्यात्मसाहित्यका विपुल मात्रामें – लाखोंकी संख्यामें – प्रकाशन हुआ। हजारों प्रवचन टेपरिकार्ड किये गये। इस प्रकार पूज्य गुरूदेवका अध्यात्म-उपदेश मुमुक्षुओंके घर-घरमें गूँजने लगा। प्रति वर्ष ग्रीष्मावकाशमें विद्यार्थियोंके लिये और श्रावणमासमें प्रौढ़ गृहस्थोंके लिये धार्मिक शिक्षणवर्ग चलाये जाते थे और आज भी चलाये जाते हैं। इस प्रकार सोनगढ़ पूज्य गुरूदेवके परम प्रतापसे बहुमुखी धर्मप्रभावनाका पवित्र केन्द्र बन गया।

पूज्य गुरूदेवके पुनीत प्रभावसे सौराष्ट्र-गुजरात तथा भारतवर्षके अन्य प्रांतोंमें स्वानुभूतिप्रधान वीतराग दिगम्बर जैनधर्मके प्रचारका एक अद्-भुत अमिट आन्दोलन फैल गया। जो मंगल कार्य भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवने गिरनार पर वाद प्रसंग पर किया था उसी प्रकारका, स्वानुभवप्रधान दिगम्बर जैनधर्मकी सनातन सत्यताकी प्रसिद्धिका गौरवपूर्ण महान कार्य अहा ! पूज्य गुरूदेवने श्वेताम्बरबहुल प्रदेशमें रहकर, अपने स्वानुभवमुद्रित सम्यक्त्वप्रधान सदुपदेश द्वारा हजारों स्थानकवासी श्वेताम्बरोंमें श्रद्धाका परिवर्तन लाकर, सहजतासे तथापि चमत्कारिक प्रकारसे किया। सौराष्ट्रमें नामशेष हो गये आत्मानुभूतिमूलक दिगम्बर जैनधर्मके – पूज्य गुरूदेवके प्रभावनायोगसे जगह-जगह हुए दिगम्बर जैन मंदिर, उनकी मंगल प्रतिष्ठाएँ तथा आध्यात्मिक प्रवचनों द्वारा हुए – पुनरुद्धारका युग आचार्यवर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके मंदिरनिर्माण-युगकी याद दिलाता है। अहा ! कैसा अद्-भुत आचार्यतुल्य उत्तम प्रभावनायोग ! सचमुच, पूज्य गुरूदेव द्वारा इस युगमें एक समर्थ प्रभावक आचार्य समान जिनशासनोन्नतिकर अद्-भुत अनुपम कार्य हुए हैं।

पूज्य गुरूदेवने दो-दो बार सहस्त्राधिक विशाल मुमुक्षु संघ सहित पूर्व, उत्तर, मध्य और दक्षिण भारतके जैन तीर्थोंकी पावन यात्रा करके, भारतके अनेक छोटे-बड़े नगरोंमें प्रवचन दिये और नाइरोबी(अफ्रीका)का, नवनिर्मित दिगम्बर जिनमंदिरकी प्रतिष्ठाके निमित्त, प्रवास किया – जिसके द्वारा समग्र भारतमें तथा विदेशोंमें शुद्धात्मदृष्टिप्रधान अध्यात्मविद्याका खूब प्रचार हुआ।

यह असाधारण धर्मोद्योत स्वयमेव बिना-प्रयत्नके साहजिक रीतिसे हुआ। गुरूदेवने धर्मप्रभावनाके लिये कभी किसी योजनाका विचार नहीं किया था। वह उनकी प्रकृतिमें ही नहीं था। उनका समग्र जीवन निजकल्याणसाधनाको समर्पित था। उन्होंने जो सुधाझरती आत्मानुभूति प्राप्त की थी, जिन कल्याणकारी तथ्योंको आत्मसात् किया था, उनकी अभिव्यक्ति उनसे ‘वाह ! ऐसी वस्तुस्थिति !’ ऐसे विविध प्रकारसे सहजभावसे उल्लासपूर्वक हो जाती थी, जिसका गहरा आत्मार्थप्रेरक प्रभाव श्रोताओंके हृदय पर पडता था। मुख्यतः इस प्रकार उनके द्वारा सहजरूपसे धर्मोद्योत हो गया था। ऐसी प्रबल बाह्य प्रभावना होने पर भी, पूज्य गुरूदेवको बाहरकी किंचित् मात्र रुचि नहीं थी; उनका जीवन तो आत्माभिमुख था।

पूज्य गुरूदेवका अन्तर सदा ‘ज्ञायक….ज्ञायक….ज्ञायक, भगवान आत्मा, ध्रुव…ध्रुव…ध्रुव, शुद्ध..शुद्ध…शुद्ध, परम पारिणामिकभाव’ इस प्रकार त्रैकालिक ज्ञायकके आलम्बनभावसे निरन्तर – जागृतिमें या निद्रामें – परिणमित हो रहा था। प्रवचनोंमें और तत्त्वचर्चामें वे ज्ञायकके स्वरूपका तथा उसकी अनुपम महिमाका मधुर संगीत गाते ही रहते थे। अहो ! वे स्वतन्त्रताके और ज्ञायकके उपासक गुरूदेव ! उन्होंने मोक्षार्थियोंको मुक्तिका सच्चा मार्ग बतलाया !

अहा ! गुरूदेवकी महिमाका वर्णन कहाँ तक करें ! उनका तो द्रव्य ही कोई अलौकिक था। इस पंचम कालमें उस महापुरूषका – आश्चर्यकारी अद्-भुत आत्माका – यहाँ अवतार हुआ वह कोई महाभाग्यकी बात है। उन्होंने स्वानुभूतिकी अपूर्व बात प्रगट करके सारे भारतके जीवोंको जगाया है। गुरूदेवका द्रव्य ‘तीर्थंकरका द्रव्य’ था। इस भरतक्षेत्रमें पधारकर उन्होंने महान-महान उपकार किया है।

आज भी पूज्य गुरूदेवके सातिशय प्रतापसे सोनगढ़का सौम्य शीतल वातावरण आत्मार्थियोंकी आत्मसाधनालक्षी आध्यात्मिक प्रवृत्तियोंके मधुर सौरभसे महक रहा है। पूज्य गुरूदेवके चरणकमलके स्पर्शसे अनेक वर्षों तक पावन हुआ ऐसा यह अध्यात्मतीर्थधाम सोनगढ़ – आत्मसाधना एवं बहुमुखी धर्मप्रभावनाका पवित्र निकेतन – सदैव आत्मार्थियोंके जीवन-पथको आलोकित करता रहेगा।

हे परमपूज्य परमोपकारी कहानगुरूदेव ! आपके पुनीत चरणोंमें – आपकी मंगलकारी पवित्रताको, पुरूषार्थप्रेरक ध्येयनिष्ठ जीवनको, स्वानुभूतिमूलक सन्मार्गदर्शक उपदेशोंको और तथाविध अनेकानेक उपकारोंको हृदयमें रखकर-अत्यंत भक्ति पूर्वक हमारी भावभीनी वंदना हो ! आपके द्वारा प्रकाशित वीर-कुन्दप्ररूपित स्वानुभूतिका पावन पथ जगतमें सदा जयवंत वर्तो ! जयवंत वर्तो !

अहो ! उपकार जिनवरका, कुन्दका, ध्वनि दिव्यका।
जिनके, कुन्दके, ध्वनिके दाता श्री गुरूकहानका।।