वि.सं. 1995(ई.स.1939) में शत्रुंजय सिद्धिधामकी यात्रा पूज्य गुरूदेवश्रीने संघसहित की। अध्यात्म जीवंत तीर्थ पू. सद्-गुरूदेवश्री एवं पूज्य भगवती बहिनश्री चंपाबेनके हृदयमें ऐसी भावना हुई की ‘अरे ! हमें साक्षात् भगवानका तो विरह परंतु जिनप्रतिमा-वीतरागी उपशांतमुद्राके भी दर्शन नहीं’!
उस समय अमीरस्वभावी नानालालभाई जसाणी उपस्थित थे उन्होंने देव-गुरूकी भक्ति पूर्ण हृदयसे सोनगढ़ में जिनमंदिर बनानेकी भावना व्यक्त की। पूज्य गुरूदेवश्रीने सम्मति दी।
जिनेन्द्र मंदिरका शुभारंभ हुआ। पूज्य गुरूदेवश्रीने स्वयं वसुनंदी प्रतिष्ठापाठ पढ़कर बहिनश्री-बेनको आदेश दिया कि जयपुर जाओ और प्रतिमा ले आओ एवं सुयोग्य सभी प्रकारकी सूचनाएँ दी।
एक शिल्पकारकी दुकानमें अभी जिनमंदिरमें बिराजित हैं वैसे ही तीन भगवान बिराजते थे। पूज्य माताजी (भगवती बहिनश्री चंपाबेन) को बड़ी प्रसन्नता हुई। वीतराग भाववाही, प्रशांत सौम्य मुद्रा देखकर शिल्पीको कहा कि ‘शुद्ध दिगंबर आम्नायकी ये ही प्रतिमाएँ हमें ले जानी हैं’ और ट्रेनमें स्वयं साथ लेकर सोनगढ़ आए।
परम कृपालु पूज्य गुरूदेवश्रीको भोरमें आभास हुआ कि तीन लाईट आ रही हैं। उन्होंने भक्तोंसे कहा कि “जाओ स्टेशन पर स्वागत करो ! तीन भगवान आ रहे हैं।” पूज्य माताजी ट्रेनसे उतरी तो भक्तोंको देखकर आश्चर्यान्वित हुई। भक्तोंने कहा- ‘हम पूज्य गुरूदेवश्रीके आदेशसे आए हैं’। ‘प्रभु पधारें, प्रभु पधारें’- ऐसी सुवर्णपुरीके भक्तोंको जिनवर दर्शनकी उग्रभावना साकार हुई। भगवानकी पेटी खुलते ही पूज्य गुरूदेवश्री के मुखसे ‘आहाहा !’ निकल गय़ा। ‘भगवानने हमें निहाल कर दिया।’ भक्तिभावसे स्तब्ध हो गये तथा नैनोंमेंसे हर्षाश्रुकी धारा बहने लगी !
अभी प्रतिष्ठाकी तो तैयारियाँ चलती थी पर पूज्य गुरूदेवश्री तो बारबार भगवानके पास बैठ कर गाते-
“अमीयभरी मूर्ति रची रे, उपमा न घटे कोय,
शांत सुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय
सीमंधर जिन देखे लोयन आज”
बाहरसे कोई भी आए तो उसको पूज्य गुरूदेवश्री हाथ पकड़ ले जाते और कहते- ‘चलो ! मेरे भगवान दिखाऊँ ? देखा तुमने ? मेरे भगवानको देखा ?’ ऐसे हर्षोल्लाससे भगवान दिखाते। स्वयं भी बारबार मुद्रा निहारते जैसे लगता था कि मानो उन्हें साक्षात् भगवान ही न मिल गए हो ! पूज्य गुरूदेवश्री प्रभुको अश्रुभीनी नजरोंसे निहारते मानों कहते “हे भगवन् ! आपके विरहमें, आपकी स्थापना कर हम विरह दुःख विसारेंगे।”
वि.सं. 1997 (ई.स.1941) माघ (गुजराती) कृष्णा 11से फाल्गुन शुक्ला द्वितीया तक पंचकल्याणकका अट्ठाई महोत्सव मनाया गया। भक्तोंको अपूर्व उल्लास था। मानों प्रभुके साक्षात् कल्याणक ही न मना रहे हों ! प्रतिष्ठा महोत्सवके समय पूज्य गुरूदेवश्रीके प्रवचन भी वीतरागी प्रभुके मिलनकी धूनसे भरे हुए आते थे।
પ્प्रथमबार प्रतिष्ठा ! भक्तजन अति प्रमुदित थे। जीवनमें भगवानका मिलन होनेसे, अत्यंत प्रचुर भावनाओंसे युक्त सभी दृश्य अद्-भुत नजर आते ! वि.सं.1993 (ई.स.1937) में पूज्य बहिनश्री चंपाबेनके स्मरणज्ञानमें विदेहके सीमंधरप्रभु आ ही चूके थे। अतः जिनमंदिरमें मूलनायक सीमंधर भगवान पधारे फिर भक्तोंके उल्लासका क्या कहना ! अतः जिनमंदिरमें सीमंधर भगवान, शांतिनाथ भगवान एवं पद्मप्रभ भगवानकी संगमरमरकी बड़ी प्रतिमाएँ हैं। नीचे धातुके आदिनाथ भगवान, नेमिनाथ भगवान, महावीर भगवान, पार्श्वनाथ भगवानादिकी प्रतिमाएँ हैं। पार्श्वनाथ भगवान स्फटिकमणिके हैं। चाँदीके सिंहासन, भामंडल, चंवर व छत्रत्रयसे अति सुशोभित मंदिर है।
भक्तोंका प्रवाह बढ़ रहा था। कुछ ही वर्षोंमें यह मंदिर छोटा पड़ने लगा। भक्तोंने फिरसे वि.सं.2013(ई.स.1957)में मंदिरका विस्तृतिकरण किया। उस समय पूज्य गुरूदेवश्रीको 68वाँ वर्ष चल रहा होनेसे, इसकी स्मृतिमें जिनमंदिरकी ऊँचाई 68 फिटकी रखी गई थी। बडे मंदिरमें दोनों पार्श्वमें सुंदर पौराणिक चित्रावलि अंकित है। जिनवेदीके उत्तरमें शांतिनाथ भगवानके पूर्वभवका, पूज्य गुरूदेवश्रीकी शिखरजीकी ससंघ यात्राका, महावीर भगवानका, सप्तऋषिका, नमिनाथ भगवानका चित्र है। पूर्वमें आदिनाथ भगवानका पूर्व भव, जम्बूस्वामी, देवकीके घर पुत्रोंके आहारदानका चित्र है। दक्षिणमें पूज्य गुरूदेवश्रीके प्रभावसे उस समय निर्मित कतिपय मंदिर,, रामचंद्रजी देशभूषण-कुलभूषण मुनिराजके साथ, सीमंधर प्रभुका दीक्षा कल्याणक, पूज्य गुरूदेवश्री कई आचार्यों के शास्त्र पढते हुए एवं सिद्धवरकूटमें पूज्य गुरूदेवश्रीका नौकाविहार चित्रित है। जिनमंदिरमें निजमंदिरके द्वार पर सुवर्णकी सुंदर नक्काशी एवं ‘ॐ’
विराजित है। ऊपर वेदीमें नेमिनाथ भगवानकी श्याम प्रतिमा बिराजित है जो अतिरम्य है। ऊपरसे मानस्तंभके भगवान, शंत्रुजय-शिखर एवं पूरे ही परिसरका दृश्य दिखाई देता है।
सातिशय जिनवरमंदिर है, दिव्यमूरति सीमंधरजिनकी।, जिनके दर्शनकर जगप्राणी, आतमशांति सुख पाते हैं।।